News Universal, माहे रमजान इंसान को कामयाब जिंदगी गुजारने की देता है शिक्षा

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अब्दुल्लाह सिद्दीकी, News Universal, सिद्धार्थनगर । माहे रमजान- माहे रमजान इंसान को कामयाब जिंदगी गुजारने की शिक्षा देता है। यह नेकी करने और बुराईयों से रोकने का महीना है। इंसान को इस महीने की तरह शेष अन्य महीने में भी बुराइयों से दूर रहना चाहिए। तभी अल्लाह तआला की असीम कृपा हासिल हो सकती।

अगर इंसान इस पवित्र माहे मुबारक में जुल्म, ज्यादती, झूठ, चोरी, बेईमानी, चुगली, गीबत, जिना, वगैरह जैसी बुराइयों से दूर नहीं रह पाता है, तो उसे रोजा रखना यानी भूखे और प्यासे रहने का कोई मतलब नहीं है।

रोजा का हकीकी मकसद आंख, नाक, कान, जुबान, हाथ, पैर यानी जिस्म के हर एक अजजा / इन्द्रियों को बुराइयों से दूर रखना और नेक कामों को करते हुए गरीबों, यतीमों और मिस्कीनों की मदद करना होता है।

मजहबे इस्लाम में रोजा-

अल्लाह तआला ने कुरान-ए-मजीद में फरमाया है कि “ऐ ईमान वालों तुम पर रोजा फर्ज किया गया है जैसा कि तुमसे पहले के लोगों पर फर्ज किया गया था” ताकि तुम मुत्तकी और परहेजगार बन जाओ।
मजहबे इस्लाम की बुनियाद पाँच चीजों पर कायम है। जिसका पालन करना हर मोमिन पर लाजिम और फर्ज है।

  • पहला एक अल्लाह पर यकीन करना और उसके मुकाबिल किसी को शरीक न करना।
  • दूसरा नमाज कायम करना।
  • तीसरा जकात देना।
  • चौथा रोजा रखना।
  • पांचवा साहिबे हैसियत होने पर खान-ए-काबा का तवाफ यानी हज करना।

रोजा शारीरिक व अध्यात्मिक इबादत-

माहे रमजान में रोजा रखना एक जिस्मानी और रूहानी इबादत है। इस माहे मुबारक में रोजा रखकर पाबन्दी के साथ इबादत करके इंसान अपने सारे गुनाह माफ करवा सकता है। रमजान के पूरे महीने को दस-दस दिनों के हिसाब से तीन अशरह/भागों में बांटा गया है।

  • पहला अशरह रहमत का
  • दूसरा अशरह मगफिरत का
  • तीसरा अशरह जहन्नम से निजात यानी आजादी का है।

माहे रमजान का महत्व-

अल्लाह के पैगम्बर जनाबे मुहम्मदुर्रसूलुल्लाह सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम ने फरमाया है कि जिसने ईमान व एहतेसाब की नीयत से रोजा रखा तो उसके गुजिशता यानी पिछले सारे गुनाह मुआफ कर दिए जाते हैं। माहे रमजान इबादतों का गहवारा है। इसलिए इस माह में जितनी नेकियाँ की जाती हैं, तो दीगर महीनों के एवज से सत्तर गुना ज्यादा शवाब यानी पुण्य मिलता है।

इस खैर-व-बरकत के महीने में गरीबों और मिस्कीनों में ज्यादा से ज्यादा माल-व- दौलत को खर्च किया जाता है। तो अल्लाह भी उसके माल-व-दौलत में इंतिहाई खैरो बरकत अता फरमाता है। साहिब-ए-हैसियत यानी हर मालदार पर अल्लाह ने जकात और फितरह भी फर्ज / वाजिब किया है।

जो ईद की नमाज से पहले गरीबों और मिस्कीनों को अदा करना लाजिमी है। ताकि किसी गरीब और मिस्कीन की ईद पैसों की तंगी की वजह से फीकी न पड़ जाए। अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम फरमाते हैं कि अगर किसी ने किसी भी रोजेदार को शाम के वक्त रोजा खुलवाया यानी अफ्तार करवाया चाहे वह एक घूंट पानी या खजूर का एक ही दाना क्यों न हो, तो उसका शवाब / पुण्य एक रोजेदार के बराबर ही मिलता है।

इसलिए इस माहे मुबारक को पाकर अगर किसी ने अपने मालो दौलत को खर्च करके और कुरआने पाक की तिलावत व इबादत करके अपनी मगफिरत नहीं करवाया तो इस दुनिया में उसके जैसा बदनसीब इंसान कोई नहीं है।

माहे रमजान के आखिरी अशरे की ताक रातों का महत्व-

अल्लाह तआला फरमाता है इस माहे मुबारक के आखिरी अशरह के लैलतुल कद्र में हमने कुरान ए मुकद्दस को उतारा है। इसलिए आखिरी अशरह की 21, 23, 25,  27, 29 यानी पाँच ताक रातें अल्लाह की नजर में इंतिहाई महबूब हैं। इबादात और कुरआन की तिलावत के साथ इस रात की तलाश में लोगों को आगे रहना चाहिए। क्योंकि इस रात में इबादत करना एक हजार महीने की इबादत से बेहतर है।

अल्लाह तआला बंदे की तमाम गुनाहों को माफ फरमाता है। एक अल्लाह पर ईमान रखना, नमाज, जकात और हज के अदायगी में दिखावा या रयाकारी हो सकती है, लेकिन रोजे के हालत में बन्दा सारी नेअमतें सामने होने के बावजूद कुछ भी हलक के नीचे नहीं उतारता है।

रोजा सिर्फ अल्लाह की खुशी के लिए रखता है। इसमें रियाकारी की कोई गुंजाइश नहीं होती। इस बात से रोजे की अहमियत का अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है।

रोजा का हकीकी मकसद आंख, नाक, कान, जुबान, हाथ, पैर यानी जिस्म के हर एक अजजा / इन्द्रियों को बुराइयों से दूर रखना और नेक कामों को करते हुए गरीबों, यतीमों और मिस्कीनों की मदद करना होता है।

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