News Universal, ओह हम हर साल मोहर्रम मनाते हैं ?,

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मोहर्रम- विश्व भर में अलग-अलग प्रकार के धर्म पाए जाते हैं, और उनके अलग-अलग त्यौहार भी होते हैं। तथा उनके त्योहारों के मनाने का तरीका भी अलग अलग ही होता है।

  • मोहर्रम माह की महत्ता और महान बलिदान का अमिट इतिहास

आज हम जानेंगे मुस्लिम समुदाय में मनाए जाने वाले त्योहार मोहर्रम के बारे में जिसमें लोग रोजे रखकर अपनी प्रसन्नता व्यक्त करते हैं। मोहर्रम को मुहर्रम कहने की वजह यह है कि मोहर्रम का अर्थ है हराम किया हुआ अर्थात् इस माह में अल्लाह ने लड़ाई झगड़ा हराम कर दिया यानी उस पर प्रतिबंध लगा दिया। यह बहुत ही पवित्र महीना है इसके अतिरिक्त अन्य 3 महीने भी बहुत पवित्र माने जाते हैं। रजब, जुल्कादा और जिलहिज्जा।

मोहर्रम इस्लामी साल का पहला महीना भी है। यूं तो नए साल के आगमन की बात करें तो हमारे मन में आने वाला सबसे प्रथम महीना जनवरी होता है। लेकिन जिस प्रकार अंग्रेजी कैलेंडर जनवरी माह से और हिन्दी कैलेंडर चेत्र माह से शुरू होता है।

उसी प्रकार अरबी कैलेंडर का आरंभ मोहर्रम माह से होता है। मोहर्रम के दसवीं तारीख को आशूरा कहा जाता है। इस दिन और उसके एक दिन पहले या एक दिन बाद अर्थात 2 दिन रोजा भी रखा जाता है।

आइए जानते हैं इस महीने में रोजा रखने का इतिहास क्या है? अल्लाह के आखरी पैगंबर हजरत मुहम्मद सल्लल्लाहू अलैहि व सल्लम जब मक्का से हिजरत करके मदीना गए तो मदीना के लोगों को दसवीं मोहर्रम यानी एक दिन का रोजा रखते हुए पाया।

जब उनसे रोजा रखने की वजह पूछी गई तो मदीना वालों ने बताया कि आज ही के दिन अर्थात् दसवीं मोहर्रम को अल्लाह के नबी हजरत मूसा अलैहिस्सलाम इतिहास के सबसे जालिम बादशाह (फिरौन) के क्रूरता और हिंसा से छुटकारा पा गए थे। और इस खुशी में मूसा अलैहिस्सलाम की कौम यानी यहूदियों ने 1 दिन रोजा रखा था।

इसलिए हम भी इस दिन रोजा रखते हैं। यह सुनकर हजरत मोहम्मद सल्लल्लाहु अलेही वसल्लम ने कहा कि मूसा अलैहिस सलाम की खुशी में हम यहूदियों से ज्यादा हकदार हैं।

इसलिए हम अगले साल दसवीं मोहर्रम के साथ 1 दिन पहले या 1 दिन बाद जोड़कर अर्थात 2 दिन का रोजा रखेंगे।

इस प्रकार लोग मोहर्रम का रोजा रखने लगे। इस रोजे के बारे में अंतिम पैगंबर हजरत मोहम्मद सल्लल्लाहो अलैहि व सल्लम ने बताया है कि यह रोजा रखने से 1 साल अगले और 1 साल पिछले गुनाह माफ कर दिए जाते हैं। यह हुई मोहर्रम के रोजा रखने की वजह।

इसके अतिरिक्त कुछ लोग मोहर्रम में मातम मनाते हैं। ताजिया का जुलूस निकालते हैं। वह मोहर्रम को मातम और गम का महीना मानते हैं। आइए जानते हैं उनके मातम मनाने की वजह, कि आखिर इस महीने में मातम क्यों मनाते हैं।

इस बारे में कहा जाता है कि इसी दिन यानी 10 मोहर्रम को आखिरी पैगंबर हजरत मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के नवासे हजरत इमाम हुसैन रजिअल्लाहु अनहू अपने खानदान के साथ कर्बला के मैदान में शहीद कर दिए गए थे। और उनकी शहादत यानी बलिदान का शोक मोहर्रम के मातम के तौर पर मनाया जाता है।

यह त्यौहार खासकर शिया, सुन्नी और अन्य सम्प्रदाय के लोग ज्यादा मनाते हैं। और इमाम हुसैन रजि. के बलिदान को याद करते हैं। और काले कपड़े पहन कर दुख व्यक्त करते हैं।

नौहा और मातम करते हुए दुख व्यक्त करते हैं। आग के अंगारों पर चलते हैं। दसवीं मोहर्रम को ताजिया का जुलूस भी बड़े धूमधाम से निकाला जाता है। ताजिए के अंदर सांकेतिक कब्र तैयार किया जाता है। इस जुलूस में कब्र को बड़ा सम्मान दिया जाता है।

कई स्थानों पर निकाले जाने वाले ताजिया जुलूस बहुत ही लोकप्रिय भी होते हैं। ताजिया जुलूस के साथ लोग नौहा पढ़ते और मातम करते हुए कर्बला पर जा कर ताजिए को बडी अदब व एहतिराम के साथ सुपुर्देखाक करते हैं। जुलूस को देखने और उसमें शामिल होने के लिए लोग दूर-दूर से आते हैं।

मुहर्रम की दसवीं तारीख को आखिरी नबी हजरत मुहम्मद सल्लल्लाहो अलैहि व सल्लम के नवासे हजरत इमाम हुसैन रजि. और उनके अहले खाना की अजीम कुर्बानी (महान बलिदान) रहती दुनिया तक याद रखा जाएगा।

उनका व उनके परिवार का यह महान बलिदान सत्य, अहिंसा और इस्लाम धर्म की रक्षा के लिए था। उनका किसी से कोई व्यक्तिगत लड़ाई, झगडा किसी बात को लेकर नहीं था।

उस दौर का शासक सजीद और उसके अन्य कारिंदे राजसी विलासिता में डूबे थे। उसमें संसार की नाना प्रकार की बुराईयां थी। वह अपने इन्हीं बुराईयों को छिपाने के लिए हजरत इमाम हुसैन रजि. से समर्थन मांगने के लिए धोखे से मदीना से कूफा बुलाया।

नौ दिनों तक बल पूर्वक अपनी बात को मनवाले के लिए दबाव डालता रहा। दसवें दिन हजरत इमाम हुसैन रजि. और उनके परिवार के सभी निहत्थे सदस्यों को कर्बला के मैदान में शहीद कर दिया।

यदि हजरत इमाम हुसैन रजि. यजीद और उसके कारिदों के राजसी विलासिता और उनमें मौजूद सभी सांसारिक बुराईयों को अच्छा कह देते तो इस्लाम मिट जाता। लेकिन उन्होंने महान बलिदान देकर इस्लाम धर्म को बचाया है। इस लिए संसार का प्रलय होने तक इस्लाम धर्म और उनके महान बलिदान को याद रखा जाएगा।

मशहूर शायर मो. अली जौहर रहमतुल्लाह अलैह ने कहा कि

“कत्ले हुसैन असल में मरगे यजीद है
इस्लाम जिन्दा होता है हर कर्बला के बाद”

By ✍शमा खान

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